विवाह संस्कार

विवाह संस्कार

संस्कार | Duration : 5 Hours
Price Range: 15000 to 41000

About Puja

विधि पूर्वक समावर्तन संस्कार के पश्चात् विवाह संस्कार का क्रम है, जो समस्त संस्कारों में प्रमुख है, विवाह के बाद ही गृहस्थ आश्रम में प्रवेश की अर्हता (योग्यता) प्राप्त होती है। आचार्य मनु का कथन है- कि 25 वर्ष की अवस्था में विवाह के अनन्तर गृहस्थधर्म का सविधि पालन करना चाहिए। गृहस्थाश्रम समस्त आश्रमों का पोषक एवं संरक्षक है।

       दक्षस्मृति में गृहस्थाश्रम को तीनों आश्रमों का कारण कहा गया है-
      'त्रयाणामाश्रमाणां तु गृहस्थो योनिरुच्यते'- जिस प्रकार समस्त जीव मातृच्छाया में पालित, पोषित एवं जीवित रहते हैं, ठीक उसी प्रकार समस्त धर्म, सम्प्रदाय एवं आश्रम, गृहस्थ आश्रम पर ही आश्रित एवं आधारित रहते हैं। यथा समस्त आश्रमों का आधार गृहस्थ है,  ठीक उसी प्रकार गृहस्थाश्रम का आधार स्त्री है।

       न गृहं  गृहमित्याहुर्गृहिणी गृहमुच्यते।
       गृहस्थः स तु विज्ञेयो गृहे यस्य पतिव्रता ।।

गृह में गृहिणी (भार्या) होने के कारण ही गृह को गृह संज्ञा दी गयी है।

विवाह वर वधू के मध्य एक पुनीत सम्बन्ध है, जो अग्नि और देवताओं के समक्ष पवित्र सम्बन्ध सम्पन्न होता है। सामान्य दृष्टि से तो यह एक लौकिक उत्सव प्रतीत होता है, लेकिन यह आध्यात्मिक दृष्टि से वैदिक (वेदप्रतिपाद्य) समस्त मर्यादाओं को स्थापित करने वाला होता है। सन्तानोत्पत्ति के द्वारा पितृऋण से मुक्ति के साथ ही संयमित जीवनचर्या, सद्आचरण, अतिथि अभ्यर्चन (सत्कार) तथा जीव मात्र की सेवा के द्वारा आत्मोद्धार या आत्मकल्याण रूप  साधन में सार्थक है। विवाह संस्कार का मूल उद्देश्य है लौकिक आसक्ति का विलय, तथा आध्यात्मिक एवं सामाजिक कर्तव्य पथ का ज्ञान।

मानवीय जीवन में पुरुषार्थ चतुष्टय की स्थापना के लिए गार्हस्थ्य धर्म की विशेष महिमा है। इस संस्कार का मुख्य प्रयोजन है, पुरुष एवं स्त्री को अमर्यादित नियन्त्रण करना। पत्नी पति की और पति पत्नी की अर्धाङ्ग तथा अर्धाङ्गिनी हैं। ये दोनो विवाह के पश्चात् ही पूर्णता को प्राप्त होते हैं। शुद्ध एवं स्पष्ट वेदोच्चार पूर्वक विवाह संस्कार से मन, बुद्धि एवं चित्त पर विशिष्ट संस्कारों का प्रभाव तथा दोनों में परस्पर प्रगाढ़ प्रीति फलीभूत होती है। शास्त्रोक्त गृहस्थ धर्म के पालन से ऋणत्रय (देव, पितृ, ऋषि) से निवृत्ति हो जाती है। पत्नीव्रत एवं पातिव्रत हमारे ऋषि एवं शास्त्र परम्परा की देन है। भारतीय विवाह प्रक्रिया पूर्वजन्म तथा भविष्य के भी सम्बन्ध को (सात जन्मों का रिस्ता) भी स्वीकार करता है। भारतीय विवाह संस्कार पद्धति में सम्बन्ध विच्छेद की कल्पना भी नहीं की जा सकती और यदि सम्बन्ध विच्छेद की भावना अङ्कुरित हो रही हो तो निश्चित ही वह संस्कार वैदिक पद्धति के अनुसार नही हुआ होगा। शास्त्रविधि के अनुसार जो संस्कार होता है, उसमें विच्छेद का प्रश्न ही नहीं रहता। 

भारतीय विवाह परम्परा में पत्नी पातिव्रत धर्म का तथा पति एक पत्नीव्रत का सङ्कल्प पूर्वक पालन करते हैं। जिसके फलस्वरूप परस्पर दोनों की प्रीति उत्तरोत्तर दृढ़ होती है। विवाह के अनन्तर कन्या, भार्या एवं पुरुष पति संज्ञक होता है। विवाह संस्कार से परस्पर यज्ञीय कर्मों की सिद्धि तथा धर्माचरण की योग्यता प्राप्त होती है।

Benefits

विवाह संस्कार का माहात्म्य :-

  • सनातन मतावलम्बी विवाह संस्कार में देवताओं एवं पितृश्वरों का आवाहन तथा पूजन कर आशीर्वाद प्राप्त करते है। विवाह मण्डप में मातृकाओं का आगमन होता है, उनका अशीष प्राप्त होता है।
  • विवाह संस्कार में वर विष्णु स्वरुप तथा कन्या लक्ष्मी स्वरूपा होती हैं, इसीलिए वर वधू का लक्ष्मीनारायण भगवान् के सदृश पाद्य, अर्ध्य, मधुपर्क आदि से पूजन होता है।
  • कन्यादाता को वरुण की संज्ञा दी जाती है। कन्यादान महादान है, इस दान से अपरिमित पुण्य की प्राप्ति होती है |
  • कन्यादान के पश्चात् अग्निदेव की प्रदक्षिणा करके वर वधू को स्वीकार कर होम करता है। वैदिक मन्त्रों के आहुति से नवदाम्पत्य जीवन सुख, समृद्धि, सर्वकाम, सफल, धर्म, यश के लिए प्रार्थना की जाती है ।
  • वर कन्या का अङ्गुष्ठ ग्रहण कर आजीवन परस्पर सहयोग के साथ गार्हस्थ्य धर्म को निभाने की प्रतिज्ञा करता है।
  • लाजाहोम के द्वारा वधू ,पति एवं पितृकुल दोनों की शुभ कामना के साथ गार्हपत्य-अग्नि से पति के दीर्घ जीवन की प्रार्थना करती।
  • अश्मारोहण में पति अपने पत्नी के लिए अविचल सौभाग्य की याचना देवताओं से करता है, तथा अग्नि परिक्रमा के द्वारा दोनों एक दूसरे के लिए आशीर्वाद की कामना करते हैं।
  • सप्तपदी के द्वारा परस्पर एक दूसरे के प्रति दृढ प्रीति एवं सख्य सम्बन्ध की स्थिति प्रगाढ़ होती है। दोनो एक दूसरे के अनुकूल रहने की प्रतिज्ञा करते है।
  • ध्रुव, अरुन्धती एवं सप्तर्षि के दर्शन से सम्बन्ध की दृढता तथा पातिव्रत की प्रेरणा प्राप्त होती है।
  • हिन्दू धर्म में विवाह संस्कार पूर्णतः वैदिक होने के कारण धर्मयुक्त है तथा विवाह की प्रत्येक क्रिया मन्त्रों से संयुक्त है।
  • वर एवं वधू का जीवन मङ्गलमय बनाने, धर्मपथ का अनुसरण करने तथा यश प्राप्त करने की धार्मिक प्रक्रिया विवाह संस्कार है।

वर्तमान का मानव समाज आडम्बरों को अत्यधिक महत्ता दे रहा है। यदि लौकिक प्रतिष्ठा के कारण समाज को वैभव आदि दिखाने की आवश्यकता है ,तो उसके साथ पवित्र धार्मिक कृत्यों का पालन भी आवश्यक है। विधि निषेध के द्वारा ही विवाह अखण्ड सौभाग्यदायक है। यह एक धार्मिक संस्कार है,जो धार्मिक विधि विधान से पूर्ण होता है। विवाह एक अनुष्ठानात्मक कर्तव्य है। इसमें कुछ कर्म प्रधान एवं कुछ अङ्ग‌भूत हैं।

यथा कन्याप्रतिग्रह, पाणिग्रहण, लाजाहोम अश्मारोहण, सप्तपदी तथा जयादि होम प्रधान है तथा अङ्ग‌भूत कर्म में सूर्यावलोकन, ध्रुवावलोकन (ध्रुवदर्शन) हृदयालम्भ अभिषेक तथा चतुर्थी कर्म समाहित है। विवाह संस्कार में प्रयुक्त मन्त्रों के उदात्तभाव हैं। मधुपर्क के पश्चात् कन्या का पिता जब अन्त: पट को हटाता है तथा वर कन्या परस्पर एक दूसरे का दर्शन करते हैं, तब वर एक मन्त्र पढता है,उसका भाव है- हे कन्ये ! हम दोनों के मन में जो भी भाव जन्म ले तथा उसके अनुसार हम दोनों से जो व्यवहार हो उसे विश्वेदेव एवं अप्  देवता मङ्गलमय बनायें। हमारे विचार एवं हृदय समान हों।

  • कन्यादान के मन्त्रों का भाव :- कन्या का पिता कन्या का दाहिना हाथ वर को प्रदान करते हुए कहता है, स्वर्णाभरणों से विभूषित कंचन आभा युक्त लक्ष्मी स्वरुपा कन्या को मैं विष्णुस्वरूप आप को प्रदान करता हूँ। भगवान्‌ नारायण सभी उपस्थित बन्धुबान्धव तथा सभी देवता मेरे दान के साक्षी हैं, पितरों के उद्धार के लिए मैं इस कन्या को आपके हाथों में प्रदान करता  हूं। 
  • लाजाहोम के मन्त्रों का भाव :- लाजा होम कन्या के द्वारा किया जाता है। कन्या के भाई द्वारा शमीपत्रयुक्त लाजाओं की आहुति दी जाती है तथा जिसमे तीन मन्त्र बोले जाते हैं। अर्यमा देव हम दोनों को अलग न करें, मेरा पति आयुष्मान् हों तथा समस्त बन्धु बान्धवों का उत्कर्ष हो।
  • तीसरे मंत्र में कहती है :- हे स्वामिन् ! आप की समृद्धि के लिए मैं आहुति कर रही हूँ, इस आहुति से हम दोनों में परस्पर अनुराग हो तथा वह अनुराग उत्तरोत्तर प्रगाढ़ होता जाए। अग्निदेव हमारे अनुराग का अनुमोदन करें।
  • पाणिग्रहण के मन्त्रों का भाव :- वर वधू के दाहिने हाथ को ग्रहण करते हुए कहता है -हे कन्ये ! मैं तुम्हारे हाथ को ग्रहण करता हूं | तुम मेरे साथ रहते हुए आयुष्मती होओ। भग,अर्यमा, सविता, तथा लक्ष्मी जी ने तुमको मुझे प्रदान किया है।
  • द्वितीयमन्त्रभाव :- मैं विष्णुस्वरूपा  तथा तुम लक्ष्मी स्वरूपा हो, मैं त्रिदेव हूँ और तुम त्रिदेवी मैं साम हूँ, तुम ऋक् हो मैं द्यौ हूं तुम पृथिवी हो अर्थात् हम दोनों का सदा अभिन्न सम्बन्ध है। 
  • तृतीय मन्त्रभाव :- हम दोनों वैवाहिक बन्धन से युक्त होकर पुत्र को धारण करें, सन्तान परम्परा की रक्षा हो तथा हम दोनों पुत्र पौत्रों से युक्त हों।
  • चतुर्थमन्त्रभाव :- तुम्हारी संतति दीर्घजीवी हों, हम दोनों में प्रीति बढे, यश का विस्तार हो,शुभ सङ्कल्पों से युक्त हों  तथा स्वास्थ्य रक्षणपूर्वक दीर्घायु की प्राप्ति हो । 

इसी प्रकार सप्तपदी, हृदयालम्भव आदि के मन्त्रों की उदात्त भावना है। इस प्रकार मन्त्रों  के सुन्दर भाव हैं, इससे वर वधू अखण्ड प्रेम, उज्ज्वल सौभाग्य, धर्मबुद्धि सन्तानोत्पत्ति आदि की कामना की गयी है, जो केवल सनातन परम्परा में ही सम्भव है। मन्त्रशक्ति, अग्नि एवं देवों के सन्निधि में किया गया पाणिग्रहण धर्मयुक्त सन्तति की प्राप्ति कराता है, तथा दोनों का  निःश्रेयस् सिध्द होता है।

Process

विवाह संस्कार में होने वाले प्रयोग या विधि :-

  1. मण्डपस्थापन
  2. हरिद्रालेपन तथा कंकण बन्धन  (षड् ‌विनायक पूजन) 
  3. दक्षिणा सङ्कल्प एवं भोजन सङ्कल्प 
  4. स्वस्तिवाचन गणेशस्मरण एवं  पूजन 
  5. प्रायश्चितसङ्कल्प (रजोदर्शन दोष परिहार सङ्कल्प )कन्या का
  6. प्रायश्चित सङ्कल्प (अतीत संस्कारजन्य दोष परिहार सङ्कल्प ) वर का
  7. पञ्चाङ्ग पूजन प्रतिज्ञा सङ्कल्प
  8. गणेशाम्बिका पूजन
  9. कलशस्थापन, पुण्याहवाचन, नवग्रह पूजन, मातृकापूजन  वसोर्धारा पूजन, आयुष्य मन्त्र जप, नान्दीश्राद्ध अभिषेक आदि
  10. लोकाचार (मातृभाण्डस्थापन एवं मातृका पूजन) कोहबर में 
  11. द्वारमातृका पूजन
  12. षोडश मातृका स्थापन एवं पूजन, सप्तघृतमातृका पूजन  घृतधाराकरण

 टिप्पणी :- विवाह से पूर्व कन्या और वर के यहां मण्डप में ये पूजन होते हैं।

      बारात प्रस्थान:-

  1. अश्वारोहण(परिछन)
  2. द्वारपूजा (स्वस्तिवाचन, गणपति गौरी पूजन, कलश स्थापन, नवग्रह, षोडश मातृका आदि का आवाहन एवं पूजन)
  3. वर का पूजन (पादप्रक्षालन,  तिलक, अक्षत, माल्यार्पण)
  4. वस्त्रादि का वर के लिए सङ्कल्प,दक्षिणा सङ्कल्पविष्णुस्मरण
  5. कन्यावरण (लोकाचार)
  6. वर के भ्राता द्वारा मण्डप में देवों  का पूजन
  7. कन्या द्वारा गणेश, ओंकार,  लक्ष्मी एवं कुबेर का पूजन
  8. कन्या निरीक्षण
  9. तागपाट परिधान
  10. वस्त्रादि प्रदान
  11. कन्या को आशीर्वाद प्रदान
  12. रक्षाविधान, (रक्षाबन्धन)

विवाह विधान प्रारम्भ:-

  1. विवाह विधान 
  2. वर का तिलक करण
  3. उपानह त्याग
  4. वर के प्रति निवेदन
  5. विष्टर प्रदान, पाद्यप्रदान, दाता द्वारा पाद प्रक्षालन,अक्षतधारण, पुष्पमालाधारण, पुनः विष्टरदान अर्घ्य प्रदान आचमनीय जल प्रदान, मधुपर्क  प्रदान विधि।
  6. अङ्गों का स्पर्श, गौ स्तुति
  7. गोदान आचार,पञ्चभूसंस्कार
  8. अग्निस्थापन (योजक नामक  अग्नि) 
  9. कन्या का आनयन
  10. वस्त्रचतुष्टयप्रदान
  11. कन्या पूजन
  12. वर का वस्त्रधारण, यज्ञोपवीत धारण 
  13. कन्या का सम्मुखीकरण
  14. ग्रन्थिबन्धन
  15. शाखोच्चार या गोत्रोच्चार वरपक्षीय प्रथम शाखोच्चार (वेदमन्त्र, मङ्गलश्लोक, गोत्रोच्चार)
  16. कन्यापक्षीय प्रथमशाखोच्चार (वेदमन्त्र, मङ्गलश्लोक,गोत्रोच्चार)
  17. वरपक्षीय द्वितीय गोत्रोच्चार (वेदमन्त्र,मङ्गलश्लोक,शाखोच्चार)
  18. कन्यापक्षीय द्वितीय शाखोच्चार (वेदमन्त्र, मङ्गलश्लोक, शाखोच्चार)
  19. वरपक्षीय तृतीय शाखोच्चार ( वेदमन्त्र, मङ्गलश्लोक, शाखोच्चार)
  20. कन्यापक्षीय तृतीय शाखोच्चार (वेदमन्त्र, मङ्गलश्लोक, शाखोच्चार)
  21. कन्यादान विधि, प्रार्थना , प्रतिज्ञा सङ्कल्प
  22. वर से प्रार्थना
  23. कन्यादान का प्रधान सङ्कल्प
  24. कन्यादान सांगता, गोनिष्क्रय द्रव्य वर को
  25. गौ प्रार्थना, भूयसी दक्षिणा सङ्कल्प
  26. दृढ़ पुरुष स्थापनापरस्पर निरीक्षणदक्षिणा सङ्कल्य

विवाह होम:-

  1. आचार्यवरणआचार्य की प्रार्थना
  2. ब्रह्मवरण, ब्रह्म की प्रार्थना
  3. कुश कण्डिकापात्रासादन
  4. हवन विधान, आधाराज्य होम, महाव्याहृति होम
  5. सर्वप्रायश्चित्त होम
  6. राष्ट्रभृत होम
  7. जया संज्ञक होम
  8. अभ्यातन होम
  9. आज्य होम
  10. अन्तः पट हवन
  11. लाजाहोम
  12. सांगुष्ठहस्तग्रहण
  13. अश्मारोहण
  14. गाथागान
  15. अवशिष्ट लाजाहोम, चौथी परिक्रमा
  16. प्राजापत्य हवन
  17. सप्तपदी
  18. सप्तपदी श्लोक उपदेश (कन्या का वर के प्रति सात वचन) 
  19. वर का कन्या के प्रति पाँच वचन
  20. एक महत्वपूर्ण वचन
  21. जलाभिषेक
  22. सूर्यदर्शन
  23. ध्रुव दर्शन
  24. हृद‌यालम्भन 
  25. सुमंगली (सिन्दूरदान)
  26. सिन्दूर करण ( मांग बहोरन)
  27. ग्रन्थिबन्धन
  28. गुप्तागार गमन 
  29. स्विष्टकृत हवन
  30. संस्रवप्राशन
  31. मार्जन
  32. पवित्रप्रतिपत्ति
  33. पूर्णपात्र दान 
  34. प्रणीता विमोक
  35. मार्जन
  36. बहिहोम
  37. त्र्यायुष्करण
  38. अभिषेक
  39. दुर्वाक्षतारोपण
  40. गणेश आदि आवाहित देवों का  वर वधू के द्वारा संक्षेप में पूजन
  41. आचार्य दक्षिणा
  42. ब्राह्मण भोजन सङ्कल्प, भूयसी दक्षिणा, विष्णु स्मरणम्

वर वधू के द्वारा तीन रात्री तक पालनीय नियम 

Puja Samagri

वैकुण्ठ के द्वारा दी जाने वाली पूजन सामग्री:-

  • रोली, कलावा    
  • सिन्दूर, लवङ्ग 
  • इलाइची, सुपारी 
  • हल्दी, अबीर 
  • गुलाल, अभ्रक 
  • गङ्गाजल, गुलाबजल 
  • इत्र, शहद 
  • धूपबत्ती,रुईबत्ती, रुई 
  • यज्ञोपवीत, पीला सरसों 
  • देशी घी, कपूर 
  • माचिस, जौ 
  • दोना बड़ा साइज,पञ्चमेवा 
  • सफेद चन्दन, लाल चन्दन 
  • अष्टगन्ध चन्दन
  • चावल(छोटा वाला), दीपक मिट्टी का 
  • सप्तमृत्तिका 
  • सप्तधान्य, सर्वोषधि 
  • पञ्चरत्न, मिश्री 
  • पीला कपड़ा सूती

हवन सामग्री एवं यज्ञपात्र :-

  • काला तिल 
  • चावल 
  • कमलगट्टा
  • हवन सामग्री, घी ,गुग्गुल
  • गुड़ (बूरा या शक्कर)
  • बलिदान हेतु पापड़
  • काला उडद 
  • पूर्णपात्र -कटोरी या भगोनी
  • प्रोक्षणी, प्रणीता, सुवा, शुचि, स्फय - एक सेट
  • हवन कुण्ड ताम्र का 10/10  इंच या 12/12 इंच 
  • पिसा हुआ चन्दन 
  • नवग्रह समिधा
  • हवन समिधा 
  • घृत पात्र
  • कुशा
  • पंच पात्र

यजमान के द्वारा की जाने वाली व्यवस्था:-

  • वेदी निर्माण के लिए चौकी 2/2 का - 1
  • गाय का दूध - 100ML
  • दही - 50ML
  • मिष्ठान्न आवश्यकतानुसार 
  • फल विभिन्न प्रकार ( आवश्यकतानुसार )
  • दूर्वादल (घास ) - 1मुठ 
  • पान का पत्ता - 06
  • पुष्प विभिन्न प्रकार - 2 kg
  • पुष्पमाला - 7 ( विभिन्न प्रकार का)
  • आम का पल्लव - 2
  • विल्वपत्र - 21
  • तुलसी पत्र -7
  • शमी पत्र एवं पुष्प 
  • पानी वाला नारियल
  • थाली - 2 , कटोरी - 5, लोटा - 2, चम्मच - 2 आदि 
  • अखण्ड दीपक -1
  • तांबा या पीतल का कलश ढक्कन सहित 
  • देवताओं के लिए वस्त्र -  गमछा, धोती  आदि 
  • बैठने हेतु दरी,चादर,आसन 
  • गोदुग्ध,गोदधि

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